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अध॑ त्वा॒ विश्वे॑ पु॒र इ॑न्द्र दे॒वा एकं॑ त॒वसं॑ दधिरे॒ भरा॑य। अदे॑वो॒ यद॒भ्यौहि॑ष्ट दे॒वान्त्स्व॑र्षाता वृणत॒ इन्द्र॒मत्र॑ ॥८॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

adha tvā viśve pura indra devā ekaṁ tavasaṁ dadhire bharāya | adevo yad abhy auhiṣṭa devān svarṣātā vṛṇata indram atra ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

अध॑। त्वा॒। विश्वे॑। पु॒रः। इ॒न्द्र॒। दे॒वाः। एक॑म्। त॒वस॑म्। द॒धि॒रे॒। भरा॑य। अदे॑वः। यत्। अ॒भि। औहि॑ष्ट। दे॒वान्। स्वः॑ऽसाता। वृ॒ण॒ते॒। इन्द्र॑म्। अत्र॑ ॥८॥

ऋग्वेद » मण्डल:6» सूक्त:17» मन्त्र:8 | अष्टक:4» अध्याय:6» वर्ग:2» मन्त्र:3 | मण्डल:6» अनुवाक:2» मन्त्र:8


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर मनुष्यों को कौन उपासना करने योग्य है, इस विषय को कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (इन्द्र) अत्यन्त ऐश्वर्य्य के देनेवाले स्वामिन् जगदीश्वर ! जो (विश्वे) सम्पूर्ण (देवाः) विद्वान् जन (भराय) पालन के लिये (त्वा) आप (एकम्) जिनके समान दूसरा नहीं उन (तवसम्) बल आदि के बढ़ानेवाले को (पुरः) आगे (दधिरे) धारण करते हैं उनको आप विज्ञान से धारण करते हो और (यत्) जो विद्वान् जन और जो (स्वर्षाताः) सुखों का विभाग करनेवाला (अदेवः) प्रकाश से रहित (देवान्) विद्वानों के (अभि) सम्मुख (औहिष्ट) विशेष करके तर्कित करता और सञ्ज्ञान को नहीं प्राप्त होता है और जो (अत्र) इस संसार में (इन्द्रम्) अत्यन्त ऐश्वर्य्ययुक्त का (वृणते) स्वीकार करते हैं, वे (अध) इसके अनन्तर सम्पूर्ण आनन्द को प्राप्त होते हैं ॥८॥
भावार्थभाषाः - जो मनुष्य परमात्मा ही की उपासना करते हैं, वे अत्यन्त ऐश्वर्य्य को प्राप्त होते हैं और जो विद्या से हीन होकर विद्वानों के साथ कुतर्क करता है, वह कुछ भी यहाँ नहीं पाता है ॥८॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनर्मनुष्यैः क उपास्य इत्याह ॥

अन्वय:

हे इन्द्र जगदीश्वर ! ये विश्वे देवा भराय त्वैकं तवसं पुरो दधिरे तांस्त्वं विज्ञानेन दधासि यद्यो देवो यद्यः स्वर्षाता अदेवो देवानभ्यौहिष्ट सञ्ज्ञानं नाप्नोति। येऽत्रेन्द्रं वृणते तेऽध सर्वमानन्दं लभन्ते ॥८॥

पदार्थान्वयभाषाः - (अध) अथ (त्वा) त्वाम् (विश्वे) सर्वे (पुरः) पुरस्तात् (इन्द्र) परमैश्वर्य्यप्रदेश्वर (देवाः) विद्वांसः (एकम्) अद्वितीयम् (तवसम्) बलादिवर्धकम् (दधिरे) दधाति (भराय) पालनाय (अदेवः) प्रकाशरहितः (यत्) (अभि) आभिमुख्ये (औहिष्ट) वितर्कयति (देवान्) विदुषः (स्वर्षाता) सुखानां विभाजकः (वृणते) स्वीकुर्वन्ति (इन्द्रम्) परमैश्वर्य्यम् (अत्र) अस्मिञ्जगति ॥८॥
भावार्थभाषाः - ये मनुष्याः परमात्मानमेवोपासते ते परमैश्वर्य्यं लभन्ते यो हि विद्याहीनो भूत्वा विद्वद्भिः सह कुतर्कयति स किमप्यत्र नाप्नोति ॥८॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - जी माणसे परमात्म्याचीच उपासना करतात त्यांना अत्यंत ऐश्वर्य प्राप्त होते व जो विद्याहीन बनून विद्वानांबरोबर कुतर्क करतो त्याला येथे काहीच प्राप्त होत नाही. ॥ ८ ॥